मेन मार्केट में दस बाई दस के छोटे से कमरे की एक दबी सहमी सी खिड़की से अकील ने झांक कर बाहर देखा! ठण्ड बढ़ने लगी थी और शहर धुंध की परतों में लिपटा ऊंघ रहा था ! गली के नुक्कड़ पर बनी चाय की गुमटी से खौलती चाय पत्ती और अदरक की तेज़ महक हवाओं में घुल कर आने लगी ! और साथ ही कढ़ाई में तलते भजिये पकोड़े जैसे लोगों को खींच रहे हों , नाश्ते की दुकानों पर भीड़ बढ़ने लगी थी !
उसने एक गहरी साँस भरी और इस एक साँस में उसने पहाड़ों में फैली न जाने कितने सालों की यादों को समेट लिया था ! अकील के अब्बू को गुज़रे चार साल हो गए, और माँ घर के ही बाहर एक चाय पकोड़े और मैगी की दुकान से घर चला रही हैं ! टूरिस्ट सीजन आते ही जैसे दुकान पर लोगों का ताँता लग जाता, और चार पाँच महीने में इतनी कमाई हो जाती, कि बाकी का साल गुज़ारा जा सके!
उसे पता था पहाड़ों में बर्फ पड़ गई है ! तभी तो यहाँ दिल्ली में पारा नीचे गिरता जा रहा है ! बाहर से बारिश की बूंदों की आवाज़ आई! बदहवासी से भागता हुआ वह छत पर जा पहुंचा! बेशक उसके हाथ पैर बर्फ से ठण्डे पड़ रहे थे पर मन पसीजता जा रहा था ! चेहरे को छूती सर्द हवा उसे पहाड़ों की कुमलाहट भरी नरमी देने लगी ! थोड़ी देर की बेमौसम बरसात से मौसम कुछ साफ़ हो गया और आसमान में बादल छिटके दिखने लगे ! इन उड़ते बादलों में बनते बिगड़ते न जाने कितने आकार वह देख सकता था पर फिलहाल उसे जो नज़र आ रहा था वह था नूर का चेहरा! अकील पहाड़ों से दूर आ गया था, पर नूर जैसे हर दिन चमकती धूप सा उसे छू कर चली जाती !
वह भाग कर कमरे से एक चाय पत्ती का डब्बा उठा कर लाया ! हाँ डब्बा चाय पत्ती का था, जो कुछ समय पहले उसके एक दोस्त ने उसे मुन्नार से ला कर दिया था, तोहफे में, पर अब इसमें चाय पत्ती नहीं, नूर की यादें रखी हुई थीं, जो वक़्त के साथ कसैली होती जा रही थीं ! जब जब अकील को उसकी याद आती, वह नूर के नाम खत लिख कर इस डब्बे में रख देता, वही खत जो कभी नूर तक पहुंचेंगे या नहीं, अकील खुद भी नहीं जनता था!
अकील ने हाँफते हुए कागज़ पर लिखना शुरू किया, नूर, पूरे अस्सी दिन हो गए तुम्हें न देखे हुए! परीक्षा के बाद लगा, रिजल्ट वाले दिन तो कम से कम तुम मिलोगी, पर तब भी तुम नहीं आई, कितने ही दिन मैंने पहाड़ी पर तुम्हारा इंतज़ार किया, पर अब कुछ डर मन में कौंधने लगा है ! सब ठीक तो है न! मैंने कोशिश की तुम्हारे घर जा कर पता करने की, पर मुझे ऐसा क्यों लगा कि तुम्हारे अब्बू को मेरा तुमसे मिलना नागवार है ! ऐसा क्या हुआ, हम बचपन से तो मिलते आ रहे हैं, पर अब न जाने क्यों उनकी नज़रों में कुछ उखड़ा हुआ सा था! मुझे तुम्हारी याद से ज़्यादा तुम्हारी फिक्र हो रही है ! मुझे यहां दिल्ली में मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव कि नौकरी मिल गई है ! बस दुआ करता हूँ, मैं इस काबिल बन सकूँ, कि तुम्हारे अब्बू के सामने खड़े होने में कोई हिचकिचाहट न हो !
इस पन्ने को भी अकील ने इतनी तहों में मोड़ दिया, जितना कि मन! और जा कर डब्बे को किचन में वापस रख दिया !
कॉलेज से घर आते हुए धूप में सुस्ताने अक्सर वह नूर के साथ घर के सामने वाली पहाड़ी पर बैठ जाता ! बैठ कर दोनों आगे आने वाले दिनों के न जाने कितने चित्र बनाते और उनकी कल्पना बादलों में करते ! और इन्हीं बनते बिगड़ते बादलों के फ़ाहे में अकील ने खुद को नूर का हाथ थामे देख लिया! जहां मन मिलते हों,वहां शब्दों की जरुरत नहीं होती ! बे सर पैर का कोई बेहुदा सा चुटकुला सुना कर खुद ही ठहाके लगाने वाली नूर ज्यों ही आसमान की तरफ देखी तो अचानक शांत हो गई! फिर हैरत भर वह अकील की तरफ देखी! नूर ने बादल के उस फाहे में अकील का मन पढ़ लिया और खिलखिलाती पहाड़ी पर घंटों का सन्नाटा पसर गया !
ख़ामोशी में कितनी बार अकील को लगा कि रेत में टिके नूर के हाथ पर अपना हाथ रख दे,थाम ले उसका हाथ, पर किस पहचान के साथ उसे भरोसा दिलाये? अकील सहम जाता! ऊँचे लगे चीड़ देवदार के पेड़ों से चुप्पी रिसने लगती! जैसे कुछ हुआ ही न हो और नूर फ़ौरन अपनी भौहें उचका कर कहती, अच्छा कॉलेज ख़त्म होने को है, कुछ सोचा है आगे क्या करना है !
अरे अब घर चलें, नहीं तो आगे की सारी पढ़ाई तुम्हारे अब्बू अभी करा देंगे, अकील भी हंस कर चल पड़ता!
शहर में नौकरी करते हुए लगभग छह महीने बीतने को हैं! माँ कब से अकील को छुट्टी ले कर मिलने को कह रही है ! अकील आज गांव पहुँचा! दोपहर से शाम और शाम से सुबह हो गई! पर नूर के बारे में कोई खबर नहीं! जा कर वह दुकान पर बैठ गया ! अभी ऑफ सीजन होने कि वजह से घाटी में टूरिस्ट्स नहीं हैं! गाँव के कुछ लोग दुकान पर चाय पीने बैठे हैं ! तभी अली चाचा का ज़िक्र आया ! अरे उनकी बेटी बहुत बीमार है ! उसे ले कर ही शहर गए हुए हैं !
अकील के शरीर में जैसे बिजली का कोई ज़ोरदार झटका लगा हो! सुबह सुबह पहाड़ों कि रूहानी तासीर जैसे मन को खोखला करके छोड़ती जा रही हो ! कहते हैं, पहाड़ हर चीज़ को दुगुना कर देते हैं ! चाहे ख़ुशी हो, दुख हो या अकेलापन! शहर जाने का बिलकुल भी मन नहीं था उसका, न ही किसी नौकरी का पर घर की जिम्मेदारियां अब अकील के हिस्से में थीं ! माँ कब तक दुकान पर बैठती रहेगीं? और फिर छोटे भाई की पढ़ाई ! अगले दिन अकील वापस शहर चला गया ! एक साल फिर गुजरने को था ! अकील को प्रमोशन मिला ! आज फिर वह कागज़ कलम ले कर बैठा और लिखना शुरू किया, नूर, शहर बहुत कुछ सिखा रहा है और मैं भी बदल रहा हूँ !पर मेरे दिल का एक कोना है, जहाँ बस नूर की मालिकियत है! इस कोने में नूर का शहर बसा है, जिसे खाली करना मेरे वश में नहीं है ! ज़िन्दगी के आखिरी दिन भी खुदा मुझ से मेरी ख्वाहिश जाने तो मैं तुम्हारा हाथ थामना चाहूँगा, बची हुई सारी उम्र के लिए ! और ये खत भी तब तक लिखूंगा, जब तक तुम्हें एक बार देख नहीं लेता !
तभी फ़ोन कॉल की आवाज़ से जैसे अकील नींद से जागा !
इस पन्ने को भी कई परतों में मोड़कर उसने उसी चाय पत्ती के डब्बे में रख दिया और डब्बा किचन में जा कर रख दिया !
एक रोज़ बड़ी ही ज़ल्दबाज़ी में अकील भागा जा रहा है ! आज शहर के बड़े ही नामी डॉक्टर के साथ उसे मिलना है, अपनी दवा कंपनी का एक प्रेजेंटेशन भी देना है ! सारे मरीज़ देखने के बाद डॉक्टर अकील से मिलेंगे! उनके असिस्टेंट ने अकील को इंतज़ार करने को कहा ! तभी अकील की नज़र सामने जमुनी रंग के दुपट्टे पर गई ! यह तो वही दुपट्टा था, कॉलेज के रस्ते पड़ने वाली रंगरेज़ की दुकान पर उसने जिसे नूर के साथ रंगने डाला था, और दुपट्टा रंगवाते हुए उसे कहाँ ही पता था, कि यह रंग उसके तसव्वुर पर भी चढ़ जायेगा !
नूर निढाल सी बैठी थीं , कि अकील ने आवाज़ दी, नूर ?? तुम यहां ! तभी सामने दवाई कि दुकान से अली चाचा लौटकर आ गए ! दूर शहर पहचाना चेहरा ही सबसे अपना लगता है ! अली चाचा ने बताया, नूर को लेकर हर दिन आना है अभी सात दिन तक ! उच्च टेस्ट होने हैं! इस शहर में तो महगाई इतनी! समझ नहीं आता कैसे क्या करूँ !
नूर को देख कर बस तसल्ली थी, इतनी तसल्ली की उस से कुछ भी पूछना कहना ठीक नहीं लगा ! अचानक मिली ख़ुशी और तकलीफ जब एक साथ मिल जाएँ तो न खुल कर हँसा जाता है, न रोया! वह भी छुई मुई सी सिमटी चुपचाप बैठी रही!
अकील ने कहा, चाचा, ये भी कोई परेशान होने की बात है ! आपने पहले कभी एक बार बताया तो होता ! कहीं और जाने की जरुरत नहीं है ! आप चलिए मेरे साथ ! वैसे भी आज कल ऑफिस में काम बहुत है, तो मैं बहुत देर से घर पहुँचता हूँ ! ये रही कमरे की चाबी! आप सीधे वहां पहुंचिए ! और जब तक दिल्ली में हैं, वहीं रहें ! अली चाचा की आँखों में आशा तैरने लगी !
शाम को अकील जब घर पहुँचा, अली चाचा नूर को ले कर वापस अस्पताल चले गए थे ! अकील उनके खाने का बंदोबस्त करने किचन में गया तो देखा, चाय पत्ती का डिब्बा वहां नहीं है ! उसने दिमाग पर ज़ोर दिया, और बहुत अच्छे से याद किया, पिछली बार वह खतों से भरा डब्बा यहीं रखा था! उसके दिमाग की नसें जैसे फटने को थीं, क्या पता चाचा या नूर चाय बनाने किचेन में आये हों, चाय की पत्ती समझ कर डब्बा खोला हो और खुदानखास्ता किसी तरह खत हाथ लग गए हों तो !! न जाने कौन सा लिखा शब्द नूर की ज़िन्दगी पर कैसा असर डाले ! एक लफ्ज़ की गलती भी न जाने कितने नए मायनों को ज़िन्दगी में जोड़ दे! उसे कितना अफ़सोस था कि इन खतों को उसने फाड़ कर क्यों न फेक दिया, पर जिस खत के हर लफ्ज़ में उसने अपने मन की गहराइयों को लिखा था, उसे फाड़ देना इतना आसान था क्या?अकील के मन में उदासी के बादल गहराते जा रहे थे और कमरे में जलते जीरो वाट के बल्ब की हल्की पीली रौशनी माहौल को और उदास करती जा रही थी!लगा जैसे कमरा ज़ोर ज़ोर से गोल गोल घूम रहा हो ! वह कमरे की हर अलमारी हर बक्से में डब्बा ढूंढता रहा पर वह न मिला !
देर रात नूर वापस आई पर अकील की हिम्मत जवाब दे गई, डब्बे के बारे में कुछ भी पूछने की !सुबह सुबह चाचा नूर की रिपोर्ट लेने हॉस्पिटल गए हुए थे ! नूर ज़मीन पर बिछे गद्दे पर निढाल सो रही थी ! अकील ऑफिस जाने वाला ही था, कि उसकी नज़र भटकते हुए किचन की तरफ गई, उसने अपनी ऑंखें फिर मली और देखा डब्बा वापस जगह पर रखा हुआ है ! मन में कितने ख्याल कौंध गए ! उसे लगा, परतों को खोल कर वापस उसके मन को बाइज़्ज़त उसी जगह दफना दिया गया हो ! डब्बे को हाथ में झपट कर अकील उसमें रखे खतों को गिनने लगा! पर गिनती में एक खत ज्यादा था ! एक मुड़े हुए पन्ने पर नूर की उँगलियों का अहसास था ! अकील की सांसें चढ़ रहीं थीं, कांपते हाथों से उसने पन्ना खोला!
अकील, उस दिन बादलों में मैंने देखा था, तुम्हारी उंगलियां मेरे हाथों में कसी थीं ! और यकीन मानो, मैं भी तुम्हारा हाथ छोड़ना नहीं चाहती थी! पर बढ़ते कोहरे के साथ मेरी खांसी भी बढ़ती जा रही थी ! बीमारी ने मुझे ऐसे घेरा, हर साँस मुश्किल होती जा रही थी ! तुम मुझे ऐसी हालत में देखकर शायद शहर आते ही न, इसीलिए मैंने तुमसे मिलना ठीक नहीं समझा!मुझ से मिलने रिश्तेदार आते जाते रहते हैं। फिर कॉलेज रिजल्ट वाले दिन मैंने तुम्हें पहाड़ी पर जाते भी देखा!
पर उसी दोपहर मेरी तबियत बिगड़ी और हमें शहर आना पड़ा! अब्बू को यूँ परेशान देख कर मैं वैसे भी बड़ी उलझन में रहती थी! जिस ज़िन्दगी का ही भरोसा न हो, मैं तुम्हें कैसे उस ज़िन्दगी में जगह देने का ख्याल भी लाती! पर, शायद तुम्हारा प्यार था, जो हर पल मेरी सांसों को मोहलत देता रहा!
आज मैं घर वापस जा रही हूँ, पर मन में एक इंतज़ार ले कर, पिछले छूटे, बंद आँखों में सिमटे हर ख्वाब का हिसाब किताब करने ! अकील आओगे न !!
अकील के मन से बोझ के बादल छँटने लगे, जैसे उगते सूरज की रौशनी के लिए जगह दे दी हो ! बाहर से आते इमामजस्ते की आवाज़, जिससे अकील उदासी में बिफर पड़ता, अदरक कूटते हुए, आज उसमें भी एक लय अपने आप पैदा होने लगी ! कहते हैं पहाड़ हर चीज़ को दुगुना कर देते हैं! वह भाग कर उसी पहाड़ी पर जाना चाहता था, जहाँ लिखी यह प्यार की इबारत भी दुगुनी की जा सके !
अकील की आँखों में तरावट आ गई ! पलट कर देखा तो नूर पीछे खड़ी थी ! खुशी का एक कतरा उसके दुपट्टे में उलझ गया ! और कुछ अकील की हथेलियों में ! इस ख्वाबों के पहाड़ी शहर में बर्फ पड़नी शुरू हो गई, और सारे गुलाबी रंग वापस आने लगे !
वह कहना चाहता था, तुम्हारी खिलखिलाहट भरी हँसी सुनकर ही चैत में बुरांश खिलते हैं !वर्फ के फाये तुम्हें देख मुस्कुराते हैं! तुम्हारी आँखों से गिरती ये बूँदें ही तो सावन लाती हैं ! उदासी मन में उतरे तो कोई अपना नहीं लगता ! मुझे तुम्हारी उतनी ही जरुरत है, जितनी उस पहाड़ी शहर को !