मुझे ज़िन्दगी में मिला सब कुछ अच्छा लगता, सिवाय अपने पैरों के ! उसे जब प्यार आता तो हथेलियों में मेरे पैर किसी फूल के जैसे एहतियात से रख कर चूम लेता ! और इस बात पर मैं ऐसे खीझती, कि कोई बनावटी हो सकता है पर इतना ! प्यार जैसे मसले मेरी समझ के बाहर थे ! और मैं मेरी समझ से बहुत प्रैक्टिकल थी !
बढ़ती करीबियां प्रेम को प्रेम रहने ही नहीं देतीं ! ये ले कर आती हैं बहुत से ऑब्लिगेशन्स, जो मुझे कभी पसंद ही नहीं थे!
हर कोई अपनी ही तरह का अच्छा और सच्चा है ! हर गलत को साबित करना पड़ता है ! और इस सच्चाई की परख में तो सालों क्या जिंदगी भी कम है ! क्या टिकता है एक जगह ! जिस धरती को अचल मान कर हम उसकी कसमें खा बैठते हैं, वह भी टिकी है क्या एक जगह, घूम रही है गोल गोल ! फिर यह तो मन है ! मन पलटते देर नहीं लगती ! फिर क्या भरोसा, किसने देखें हैं अंतिम पड़ाव ! यही सही गलत साबित करने के लिए सबूत जुटाना, मेरे ज़ेहन को डरा देता और मैं हँसते हुए मान लेती, धरती एक ही जगह टिकी है, मन भी ऐसे ही अटका हुआ है!
वह रह रह कर आजमाइशों के पाँसे फेंकता ! कहता, जब दुनिया कम पड़े सवाल जबाब करने में, तो चली आना, मैं तब भी यहीं मिलूँगा, यहीं इसी जगह! न मिलूँ तो सज़ा तुम मुक़र्रर करना !
मेरी हंसी छूट पड़ती! जानेमन, ये कोई कोर्ट केस चल रहा है क्या? और मैं किस अदालत की जज, जो सजाएं भी देने लगी ! सबूत जुटा कर कुछ अपना बताना हो तो वह अपना ही क्या !
गहरी साँस भर उसने कहा, और अगर कुछ गुम गया हो, और कोई और उसे अपना बता रहा हो तो ?
मैं चुप हो जाती और इस चुप्पी को ही हम कभी एडजस्टमेंट कह देते, कभी प्यार, कभी मज़बूरी तो कभी नसीब !
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दीप्ति